एक आम भारतीय की आवाज़: अब और नहीं सहेंगे
नेताओं का वजूद हमसे है, हम नेता से नहीं बने!
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शीतला सिंह |
मैं वो हूं जो हर दिन सिस्टम की खामियों को झेलता है, नेताओं के झूठे वादों के बीच पिसता है, और फिर भी उम्मीद करता है कि शायद अगली सुबह कुछ बेहतर होगी।
लेकिन अब यह चुप्पी टूटनी चाहिए।
राजनीति का गिरता स्तर
हमारे देश में आज जिन नेताओं के हाथों में सत्ता है, वे कुछ अनपढ़ और कुछ पढ़े-लिखे हैं — डॉक्टर, इंजीनियर, बी.ए., एम.ए., बी.एससी., एम.एससी., एल.एल.बी., एल.एल.एम.। डिग्रियां उनके पास बहुत हैं, लेकिन क्या उनमें नैतिक शिक्षा, ज़मीर और ज़िम्मेदारी की समझ भी है?
क्या वे सच में जानते हैं कि सही क्या है और गलत क्या?
या फिर जानबूझकर अपनी आंखें मूंद ली हैं — क्योंकि उन्हें पता है कि इस देश में सत्ता से बड़ा कोई नियम नहीं है?
अगर सच में कानून का राज होता, तो कोई भी मुख्यमंत्री या मंत्री हमारे देश की मुद्रा का अपमान नहीं करता, धनबल का दिखावा नहीं करता। लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसा हो रहा है — और हम चुप हैं।
'आम आदमी' एक वोट बैंक बन गया है
"दलित", "गरीब", "असहाय", "आम नागरिक" — ये सब अब सिर्फ राजनीतिक नारों में बचे हैं। ये वो शब्द हैं जो हर चुनाव में गूंजते हैं, लेकिन चुनाव के बाद गायब हो जाते हैं। नेताओं को सिर्फ हमारे वोट चाहिए होते हैं, हमारी समस्याओं से उन्हें कोई लेना-देना नहीं।
हर पांच साल में नेता सिर्फ वोट मांगने आते हैं, बीच के वर्षों में वे आपके घर, आपके मोहल्ले, आपके दर्द से पूरी तरह अंजान रहते हैं।
हमारे सपनों के साथ हुआ धोखा
भारत के करोड़ों नागरिक आज भी गरीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं। उन्हें बार-बार सुनहरे सपने दिखाए गए — नौकरी के, शिक्षा के, सुरक्षा के। लेकिन ये सपने कभी पूरे नहीं होते।
नेताओं ने आम आदमी की पीड़ा को नहीं समझा, उन्होंने बस उसे एक साधन के रूप में देखा — सत्ता पाने का साधन।
क्या यही था आज़ादी का सपना?
क्या यही भारत है जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी?
क्या मंगल पांडे, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल ने इसी दिन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान किया था?
उन्होंने हमें आज़ाद भारत दिया, लेकिन आज हम देख रहे हैं कि वही भारत फिर गुलाम है — इस बार सत्ता, लालच और जातिवाद के हाथों।
"फूट डालो और राज करो" अब भी ज़िंदा है
एक समय था जब यह नीति ब्रिटिशों की थी। आज यह हमारे ही भारतीय नेताओं ने अपना ली है। जाति, धर्म, समुदाय, आरक्षण — इन सबके नाम पर समाज को बांटा जा रहा है।
SC, ST, OBC, महिला आरक्षण — इन सबके पीछे असली उद्देश्य समाज का उत्थान करना नहीं, बल्कि वोट और नोट बटोरना है।
अब वक्त है बदलाव का
अब समय आ गया है सोचने का, सवाल करने का, और खड़े होने का।
हमें ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो सिर्फ भाषण ना दे, बल्कि ज़मीनी स्तर पर काम करे।
हमें ऐसे प्रतिनिधि चाहिए जो "दलित" और "गरीब" को सिर्फ एक वोट नहीं, बल्कि एक नागरिक समझे।
एक नई शुरुआत करें
आइए, हम सब एकजुट हों।
अपने भीतर की उस आवाज़ को पहचानें जो कह रही है — "बस बहुत हुआ। अब बदलाव चाहिए।"
अपने वोट का सही उपयोग करें, ज़िम्मेदार प्रतिनिधि चुनें, और अपने देश को वो बनाएं जिसका सपना हमारे पूर्वजों ने देखा था।
"नेताओं का वजूद हमसे है, हम नेता से नहीं बने"
अब चुप रहना विकल्प नहीं है। अब बदलाव ज़रूरी है।
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