माँ जहाँ तुम रुकीं, वहीं ठहर गई मेरी दुनिया!
23 मई २०२५ एक मनहूश सुबह,
माँ, तुम अचानक चली गईं। सब कुछ जैसे थम गया। दुनिया बदल गई, जिस जीवन को तुम्हारे साये में जिया, वह तुम्हारे बिना अब एक अधूरी कहानी जैसा लगता है। तुमने तो कभी शिकायत नहीं की, पर आज तुम्हारी खामोशी मेरे भीतर एक असहनीय शोर बन गई है। काश मैं समय को पीछे मोड़ सकता, काश उस अंतिम क्षण को पकड़ पाता, कुछ और पल तुम्हारे साथ बिता पाता। तुम्हारा यूँ चुपचाप चला जाना जैसे मेरी आत्मा को दो हिस्सों में बाँट गया — एक जो चलता है, बोलता है, सांस लेता है… और एक जो वहीं रुक गया है जहाँ तुमने मुझे छोड़ दिया।
आज समझ में नहीं आता, कि दोष किसका है? किससे विरोध करूँ? प्रकृति से? समय से? खुद से? शायद किसी से नहीं। क्योंकि प्रकृति से बड़ा, मर्मस्पर्शी, जीवंत और विनाशकारी कुछ और नहीं। वही प्रकृति, जो जीवन देती है, वही उसे एक झटके में छीन भी लेती है — बिना चेतावनी, बिना समझौते। और जब छीन लेती है, तो पीछे जो छूटता है, वो बस शून्यता होती है। एक ऐसा खालीपन जिसे कोई शब्द भर नहीं सकते। आज तक न कोई विज्ञान, न कोई खोज, न कोई वैज्ञानिक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर पाया है। वह सबसे बड़ा सत्य है — और सबसे अधिक कठोर भी।
कभी-कभी दर्द इतना असहनीय होता है; कि न आँख में आँसू बहते हैं, न चेहरे पर उदासी दिखती है। बस भीतर कुछ धीरे-धीरे बुझता रहता है। शरीर चलता है, पर आत्मा वहीं रुक जाती है — उसी बिंदु पर, जहाँ अपनों की आखिरी सांसें बिखरी थीं। योजनाएँ चकनाचूर हो जाती हैं, और ज़िंदगी कठोर होकर जीने को विवश कर देती है। हर दिन एक बोझ बन जाता है, और हर रात एक तन्हाई। सब कुछ होते हुए भी, सब अधूरा लगता है। और माँ, तुम तो सब कुछ थीं। मेरा बचपन, मेरी पहली हँसी, मेरा पहला डर, और मेरी सबसे पवित्र प्रार्थना — सब तुमसे ही तो था।
अब तुम नहीं हो, लेकिन तुम्हारी यादें हर सांस के साथ चलती हैं। तुम्हारा स्नेह अब मेरी धड़कनों में घुल गया है। तुम्हारा जाना तो सच है, पर तुम मुझमें बस गईं। तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारा आँचल, तुम्हारी आँखों की दुआ… अब मेरी जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। मैं हर दिन तुम्हारे बिना जी रहा हूँ, लेकिन हर पल तुम्हारे साथ। और यही तुम्हारा प्रेम है — जो मृत्यु से भी बड़ा हो गया है। मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं, लेकिन माँ, तुम्हे महसूस कर सकता हूं, पर स्पर्श नहीं, सच सामने है पर यकीन अब भी नहीं 😔😔